छठ पूजा के नजदीक आने के साथ साथ मन में पुराने ख्याल आ रहे हैं। छठ पूजा की महत्ता एवं ख्याति देखकर एक विचार आ रहा है कि आखिर इसका इतिहास क्या है ?
कई विद्वान जनों व ग्रामीणों से बात करने के बाद कुछ जानकारियां मिली जैसे ऋग वैदिक काल में आश्रम वासी सूर्य के लिए मंत्र उच्चारण एवं हवन करते थे क्योंकि सूर्य को जीवन का सृष्टि का केंद्र माना जाता था। अग्नि को ईश्वर तक जाने का माध्यम इसलिए वह हवन करते थे। कालांतर में रामायण में राम सीता के अयोध्या पहुंचने की खुशी में दीपावली मनाई गई और उसके छठे दिन राम का राज्याभिषेक हुआ इस दिन राम व सीता ने उपवास रखा और सूर्यवंश की माता की पूजा की। महाभारत में पांडवों द्वारा छठ पूजा करने का उल्लेख मिला है।
छठ पूजा स्त्री व पुरुष दोनों ही कर सकते हैं। यह पूजा दो प्रकार से की जाती है प्रथम मन्नत या मनौती मांगने पर कोई कार्य संपन्न हो जाने पर व्यक्ति छठ करता है और यह उतनी बार किया जाता है जितनी बार का वह संकल्प करता है। दूसरा अधिकतर परिवार इसे परंपरा के आधार पर करते हैं जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को जाती है सास जब सारे रूप से असमर्थ हो जाती है तो अपनी बहू को इसका दायित्व सौंप देती है। यह पूजा कई तरह से होती है मूलतः यह पूजा किसी व्यक्ति के द्वारा किए गए संकल्प के अनुसार होती है।
कुछ पूजा करने वाले अरग नहीं देते सिर्फ कमर भर पानी में हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं। कुछ लोग संकल्प के अनुसार व्रतियों को अपना योगदान देते हैं तथा उनकी पूजा के कार्य में मदद करते हैं। पूजा के नाम पर कोई भी कार्य करने से मना नहीं किया जा सकता और वह कितना भी कष्ट कर हो। यह पूजा पूर्ण रूप से प्राकृतिक तौर पर आधारित है। इसके अंतर्गत आने वाले पदार्थ एवं क्रियाकलाप प्रकृति के नजदीक है। इस पूजा में बांस का बहुत महत्व है, सच कहे तो यह ध्यान देने से लगता है कि बांस हमारे वैदिक रीति में बस जीवन व परिवार से घनिष्ठता रखता है। यह घास की प्रजाति का होता है एवं एक लगाने पर इनकी संख्या बढ़ जाती है। मंडप निर्माण के समय , छठ में प्रयोग लाने हेतु बांस का सूप , दौरि , दौरा , कलसूप, टोकरी, टोकरा सभी बांस से बनते हैं। पारम्परिक रूप से विवाह में वर पक्ष के लिए जो सामान आता है वह भी बांस का होता है। दीवाल पर अलता में बांस का चित्र बनाते हैं जिससे वह वर-वधू सिंदूर लगाते हैं। बांस परिवार की प्रगति का सूचक है। आइये हम छठ पूजा की विधि के बारे में विस्तार से समझते हैं। यह पूजा कार्तिक माह में शुक्ल पक्ष में सप्तमी को संपन्न होती है। यह दीपावली के छठे दिन शुरू होती है अतः इसे छठ कहा जाता है।
इस मौसम में जो फसल तैयार होती है उसके द्वारा यह पर्व मनाया जाता है जैसे चावल , हल्दी , सब्जियां ,मूली अदरक, हल्दी ,लौकी , नारियल, निम्बू , शरीफा यदि। यह त्यौहार विशेषकर गंगा नदी, नहर एवं तालाबों के किनारे होता है। अधिक भीड़ होने के कारण अपने बगीचे में छोटा सा हौदा बनाकर भी पानी भर कर पूजा करते है। छठ त्यौहार के पहले पूरा गांव, मोहल्ला , परिवार सफाई अभियान में जुट जाता ह। घर-बार तो साफ होता ही है , गली मोहल्ले भी साफ हो जाते है। उन रास्तों को जो घाट तक जाने के लिए है उसे भी बड़ी श्रद्धा के साथ साफ कर दिया जाता है। उस पर पानी का छिड़काव किया जाता है ताकि वह घाट पर जाने वालों के लिए पवित्रता हो जाये। यह त्यौहार 4 दिन का होता है। पर्व करने वाले को पार्वतीन कहते हैं। इसकी शुरुवात का जो पहला दिन का होता है उस दिन पार्वतीन तीन बार भोजन करती ह। पवित्रता के साथ चना का दाल, कद्दू की सब्जी, चावल का भात बनता है। दोपहर के समय पर भोजन करती है। इस खाने को या तो पार्वतीन स्वयं बनाती है या फिर वह बनाता है जो व्रत करता है।
सबसे ज्यादा ध्यान देने वाली बात यह है कि इस पूजा में संबंधित कोई भी कार्य होता है उसमे पवित्रता पर अधिक बल दिया जाता है। आरंभ से ही सावधानियों छोटी-छोटी बातों में बढ़ती जाती है। पर्व आरंभ होने से पहले ही चावल और गेहूं को सावधानी से चुना जाता है । चावल गेहूं को अलग कर दिया जाता है एवं गेहूं को शुद्धता के साथ या तो घर में पिसा जाता है या बाहर किसी मशीन द्वारा पिसवाया जाता है। यह पीसने के लिए उस आटा चक्की में भेजा जाता है जिन्होंने अपना मशीन धो पूँछ कर साफ किया हुआ होता है। शुद्धता एवं पवित्रता का विशेष महत्व है अतः इस त्यौहार से संबंधित सभी क्रियाकलाप लोग उसी तरह संपन्न करते हैं ।
दशहरा के बाद ही पूजा के लिए मिट्टी के बर्तन एवं मिट्टी का चूल्हा बनाया जाता है। अब तो यह चूल्हा बाजार में भी बना बनाया मिलता है। घर के कमरे में ही पूजा के लिए स्थान चुना जाता है जहां व्रत करने वाली महिला व पुरुष रहते हैं तथा पूजा की समस्त सामग्री रहती है। महिला इसी कमरे में जमीन पर चटाई व कंबल पर सोती है तथा अपने समस्त कार्य करती है । खाना बन जाने पर सर्वप्रथम व्रत करने वाले को परोसा जाता है। एक ही बार भोजन परोसा जाता है दोबारा नहीं ले सकते। इतना ही दिया जाता है जो उनके लिए प्राप्त हो। खाने के दौरान बोला नहीं जाता है। कमरे के दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं। घर के सभी व्यक्ति शांत हो जाते हैं। आवाज एकदम नहीं आती है। कहीं-कहीं तो हल्की आवाज सुनाई देने से ही पार्वतीन खाना छोड़ देती है। यह पर्वतइन खाने से पहले “अगर” निकालती है जी बाद में बचे हुए खाने में मिला दिया जाता है और उसे प्रसाद के रूप में परिवार के सभी सदस्यों को खिलाया जाता है। दूसरा दिन नाहा खा होता है दूसरे दिन खीर और पूड़ी बनता है। कहीं-कहीं इसमें दूध का प्रयोग भी नहीं होता सिर्फ चावल व गुड़ से बनता है एवं रोटी भी बनती है इसमें गाय का घी प्रयोग किया जाता है। रोटी बनाते समय ध्यान दिया जाता है कि अधिक पकने से जो लाल दाग हो जाते हैं वह ना हो कहीं कहीं पर दाल भरी रोटी या पूरी भी बनाया जाता है । पार्वतीन सबसे पहले 3 भोग लगाती है। कद्दू भात की तरह इस पर सभी नियम लागू होते हैं।
तीसरे दिन पूजा का दिन होता है कि है कि अगर सूर्य जीवन को संचालित करते हैं तो उनकी दोनों प्रवर्तनीय भी जीवन को प्रभावित आवश्य करेंगी। सूर्य के दोनों पत्नियां उषा एवं प्रत्युषा के साथ सूर्य की पूजा की जाती है। पूरा दिन बहुत आदमी मिलकर मिट्टी के चूल्हे पर आम की लकड़ी जलाकर आटा गुड़ का भी का ठेकुआ बनाते हैं। इस काम में कोई भी व्यक्ति से हिस्सा ले सकता है बनाते समय सभी छठ का गीत गाते हैं । ठेकुआ ,हल्दी, मूली, अदरक के साथ पानी फल नारियल के छिलके के साथ रखा जाता है। सभी कुछ धो दिया जाता है उसके बाद में सिंदूर 5 लंबाई में टीका जाता है। हल्दी लगाकर चावल रखा जाता है। चावल को फुलाकर उसके पानी को निकाल कर उसे कुछ मोटा आटा बनाया जाता है तथा इसमें गुड़ मिलाकर लड्डू जैसा बनाए जाता है। कहते हैं नए फसल के चावल से बना होने के कारण बहुत स्वादिष्ट लगता है। कसार बनाना अनिवार्य होता है। सच है तो इस त्यौहार में मुख्य वस्तु हल्दी, अदरक की गांठे तथा घी का दिया होता है । बाकी तो समय के अनुसार एवं समर्थन ही किया जाता है।
दिन में 3:04 बजे ही लोग घाटों पर चल देते हैं। सभी नंगे पैर जाते हैं। सबके हाथ में एक एक लोटा होता है जिसमें गाय का दूध होता है। अधिकतर व्यक्ति व्रत में ही रहते हैं लेकिन अरग देने के लिए रात में खाना खा लेते हैं । घाट पहले ही दिन तैयार कर दिया जाता है। परिवार के अनुसार घाटों का घेरा जाता है उसे मिट्टी व गोबर से लीपा जाता है। घाट पर पहुंचने के बाद कोसी का निर्माण करते हैं । यह कोसी रंगी जाती है एवं इसको गन्ने द्वारा गोलाई में घेरकर इन के ऊपरी भाग जहां पत्ते निकलते हैं वहां बांध दिया जाता है तथा नीचे गोल घेरे में चावल से बने गीले आटे से रंगोली बनाई जाती है वह सिंदूर से टीका जाता है उस पर एक दिया रखा जाता है । छठ पूजा का आरंभ पहली अरग से ही होता है जिसमें डूबते सूर्य की उपासना की जाती है ।
डूबते सूर्य को स्वामिनी व उनकी पत्नी प्रत्युषा है जिसकी आराधना की जाती है। इसके अंतर्गत पार्वतीन पानी में जाकर खड़ी हो जाती है। वह डूबते सूर्य की तरफ मुंह करके हाथ जोड़कर कुछ देर खड़ी रहती है और उसके पश्चात 12 डुबकी लगाकर घाट की तरफ आते हैं । अगर पर्वतइन महिला है व विवाहिता है तो उसके नाक से लेकर ललाट से होते हुए बालों के मध्य है कुछ दूर तक पीला सिंदूर लगाया जाता है और अगर वह पुरुष है तो उसके ललाट पर लंबा टीका लगाया जाता है। उनके दोनों हथेलियों को जोड़कर चावल का पीसा हुआ चौराठ एवं पीला सिंदूर लगाया जाता है। इसके पश्चात सूप को हाथ पर रख दिया जाता है जिससे जलता हुआ दिया भी होता है। यह सूप का खुला भाग बाहर की तरफ रहता है। पार्वतीन सूर्य की तरफ मुंह करके खड़ी हो जाती है। कुछ देर के बाद पीछे घूमती है जहां पर सभी व्यक्ति कतार में खड़े होकर अपने लोटे में दूध व पानी उसी नदी का पानी मिलाकर उनके मुख के सामने धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा डालते हैं। उसके पश्चात वह सूर्य के सामने खड़ी हो जाती है फिर थोड़ी देर बाद पीछे घूमती है। यह प्रक्रिया कई बार दुहरायी जाती है। इसे देखकर ऐसा लगता है जैसे भक्त भगवान के बीच में एक जीता जागता माध्यम बन गया हो। संपूर्ण वातावरण भक्तिमय हो जाता है। क्या राजा क्या रंक सभी एक हो जाते हैं । सभी हाथ जोड़े रहते हैं। साथ-साथ दूध एवं पानी का अरग निरंतर दिया जाता है। उस अरग को सूर्य की ओर उठा कर दिया जाता है लोग उस पानी एवं दूध को अपनी अंजुली से लेते है एवं अपने सर, शरीर पर लगा लेते है। कोई उसे प्रसाद के रूप में अपने बर्तन में या कपड़ो पर गिरा लेता है। कई स्त्रियां तो अपने अंचल में लगा लेती हैं एवं वापस आकर इस आंचल को अपने बच्चों को परिवार के सदस्यों के माथे पर लगाते हैं। इस विधि के समाप्त होते ही सभी अपने अपने घरों की तरफ लौट जाते हैं।
आने की इस प्रक्रिया में सबसे पहले जो दौरा अपने सर पर रख कर चलता है वह सबसे आगे होता है उसके साथ एक दो व्यक्ति साथ ही में और चलते है। उनके साथ देने के लिए उसके पश्चात भक्तिन अपने हाथ में लोटा लेकर चलती है उसके पीछे बाकी सभी चलते हैं । घर पहुंचते सुबह के सूर्य की अराधना की तैयारी में लग जाते हैं। आजकल तो दोनों ही तैयारी कर लिया जाता है। रात में व्यक्ति आराम करता है लेकिन पहले तो रात भर कोई नहीं सोता था रात भर छठ का गीत गाते हुए रहते है। इसके पश्चात रात के करीब 3:00 बजे ही लोग घाट की तरफ चलते हैं। वहां पहुंचने के पश्चात पहली वाली प्रक्रिया होती है। जैसे ही सूर्य आगमन होता है पूजा देने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।
दूसरे दिन वस्त्र, सुप, फल फूल सामर्थ्यनुसार फिर से लिए जाते हैं। सुबह का अरग देने के बाद पार्वतीन अपने वस्त्र घाट पर ही बदलती है। पहले सफेद धोती पहन कर ही अरग देती थी सिलाई के वस्त्रों का प्रयोग नहीं होता था और यह धोती पुराना नया दोनों होता लेकिन समय के साथ महिलाएं नई साड़ियों का प्रयोग करने लगी है इसके द्वारा पहने हुए कपड़ों को धोने के लिए व्यवस्था होती है जिसे किसी प्रकार का कष्ट होता है उसे प्रमुखता मिलती है।
एक मान्यता ऐसी भी है कि पार्वतीन के कपड़ों को उसके धोने से पहले शरीर के किसी भी प्रकार के चर्म रोग का वाले स्थान को पूछ ली जाती है उसे यह बीमारी ठीक हो जाती है। पूजा के अंत में गोइंठा व आम की लकड़ी थोड़ी मात्रा में जलाकर पर्वत इन हवन करती है। इसके पश्चात पूजा संपूर्ण माना जाता है। सभी इसके उनके पैर छूते हैं और चाहे बड़े हो या छोटे अमीर हो या गरीब बदले में विवाहित महिलाओं का पीला सिंदूर लगाती है कुंवारों कन्याओं को इसका टीका लगाती हैं और सभी को प्रसाद बांट ती है। इस त्यौहार के अंतर्गत घाट पर जाते समय व्यक्ति जो भी त्यौहार नहीं करते अपने अपने सामर्थ्य के अनुसार फल आदि हर और में दान करते हैं और देने के लिए दूध का भी वितरण किया जाता है जो लोग सफाई अभियान में थे या फल वितरण में या फिर प्रसाद पाने की लालसा में रास्ते में दोनों किनारों पर पंक्तियों में बैठ जाते हैं और सामने का कपड़ा फैला देते हैं पर्वती उस पर प्रसाद रखती है रखती हुई निकलती है।
घर पहुंचने के बाद एक थाल में पानी लेकर उसमें पार्वतीन का हाथ पैर धोए जाता है जिसे बाद में उस जल को लोग अपने घरों में चढ़ाते हैं सर माथे पर लगाते हैं। इस व्रत का समापन एक स्वादिष्ट भोजन की थाली से होता है जिसमें विभिन्न प्रकार के पकवान होते हैं उदाहरण स्वरूप कड़ी बड़ी बहुत प्रकार की पकौड़ी , छोले , चावल ,रोटी ,पूरी ,दो तीन तरह की सब्जी। सर्वप्रथम पार्वतीन ही खाती है एवं इनके खाने के पश्चात ही घर के सभी लोग खाते हैं। लेकिन खाने से पहले पर्वती सभी के लिए प्रसाद की पोटली बनाती है जिसमें उनके सदस्य भी सहयोग करते हैं इसके पश्चात ही वह अन् ग्रहण करती है। इस प्रकार छठ पर्व धूमधाम से मनाया जाता है और कई नामों से जाना जाता है जैसे डाला पर बड़ा पर्व सूर्य शक्ति इत्यादि आरंभ में या बिहार झारखंड बिहार से पता उत्तर प्रदेश का कुछ भाग नेपाल का कुछ भाग आदि जगह में होता था लेकिन आजकल तो भारत सहित विश्व के कई शहरों में भी किया जाता है। समय परिवर्तनशील है इसमें भी कई परिवर्तन हुए जैसे पहले ठेकुआ केवल वही मिट्टी के चूल्हे पर ही बनता था परन्तु अब यह गैस पर भी बनता है। ठेकुआ बनाने के लिए व्यक्ति किराए पर मिलने लगे हैं। पहले पूरे गांव में एक दो आदमी छठ करते थे अब तो हर परिवार छठ करने लगा है और ऐसे बहुत परिवार मिल जाते हैं जिनके कई सदस्य व्रत करते हैं । इन परिवर्तनों के बावजूद हमारी संस्कृति के वह समाज के धार्मिक परिवेश में आज भी छठ सबसे कठिन व धार्मिक त्योहार माना जाता है जिसे मानने के लिए अपने वास्तव दिनचर्या में भी लोग अपने घरों की ओर रखरखाव करते हैं।
लेखिका
डॉ संध्या